शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

'एक आमंत्रण सा दिखता है '

एक आमंत्रण सा दिखता है तुममें,

एक मूक सहमति भी ।

पर ना जाने क्यों,

चेहरा भावहीन ।

आंखे,चेहरा,होंठ,चाल,हंसी,

सब तो जुड़े होतें है ।

पर तुममें ये

परस्पर विरोधी क्यों ।

नहीं,मैं जानता हुं,

इसके पीछे जान-बूझ कर

बुना हुआ कोई जाल नहीं ।

लेकिन अनजाने ही सही

भटकाव का कलंक

तुम्हारे खाते आएगा ।

और ये कोई गौरव,

तो नहीं, कि तुम इस पर,

इतराना चाहोगी ।

शायद कोई डर है

तुम्हारे मन में

लेकिन,रंगे चेहरे से बचने का

ये उचित समाधान तो नहीं ।

ये अबूझ पहेली,

परायों को उलझाने को तो ठीक

लेकिन इससे

अपनों को बंदिश क्यों ,

शायद लगता है,

नियोन बल्ब पसंद हैं तुम्हें ,

पर दिन के उजालों में भी,

यथार्थ से परहेज

ये ठीक तो नहीं.....