शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

रेशमा की आवाज अब भी गूंज रही है



हीरो फिल्म का वो गीत याद है......होंठ पे ना आई तेरी याद,लंबी जुदाई...चार दिनों का...साल याद नहीं लेकिन शायद 84 में ये फिल्म आई थी....मेरे जन्म के चार-पांच साल बाद.....लेकिन इस फिल्म को देखा साल 99 में...फिल्म तो नहीं...लेकिन ये गीत जरूर जेहन में चस्पा हो गया...17 साल की उम्र रही होगी...जब पहली बार ये फिल्म देखा...इस गीत ने बिना प्रेम किए ही विरह की आग की पूरी परिभाषा समझा दी...रेशमा की आवाज ने जज्बातों के आसरे दिल पर कुछ यूं दस्तक दी , मानो लगा कि किसी से बिछुड़ने पर ऐसा ही दर्द महसूस होता होगा....आज रेशमा की याद इसलिए आ गयी क्योंकि सालों बाद एक सहयोगी ने ये गाना सुनाया....आज जबकि जीवन की दरिया से बहुत पानी बह चुका है....तब इस गीत ने फिर कुछ पीछे लौटा दिया....और कुछ सोचने पर मजबूर भी कर दिया....एक चीज समझ में नहीं आई...आखिर रेशमा के गाये गीतों में ऐसा क्या जादू था कि 70 और 80 के दशक में पंजाब और राजस्थान की सोंधी महक वाली ये गीतों आज 26 साल बाद भी लोगों के दिलों तक सीधे पहुंचा करती है...रेशाम का एक और गीत हैयो रब्ब, दिल लगदा नैयो मेरा’ ....कुछ ऐसा ही है...दर्द से लबरेज यह गीत दर्द के मारों के लिए आज भी बड़ी मुफ़ीद दवा  है....सच कहूं तो रेशमा जी की श़िख्सयत में इतनी शोखी और मस्ती है कि उनके सुनते हुए पता ही नहीं होता कि कब उनकी शोखी दर्द का दरियां बन जाती है.....उनका गाया एक और गीत है जिसे पंजाब में कमोबेश हर शादी में बिटिया की बिदाई पर गाया जाता है....ये गीत 1976 की फिल्म ‘कभी-कभी’ में इस्तेमाल हुआ है....‘साडा चिड़ियां दा चंबा वे, बाबल असीं उड जाणा…साडी लंबी उडारी वे असां मुड़ नहीं औणा’..... मगर रेशमा की आवाज के अलावा बाकी आवाज दिल की भीगीं सतह तक पहुंच ही नहीं पाती.....रेशमा की आवाज में दर्द तो था....लेकिन उनकी आवाज इस दर्द की डोर थामे जीवन की सच्चाई की परत खोलती रहती है...हीरो फिल्म के उसी गाने को सुनिए तो लगता है....विरह के साथ-साथ ये आवाज बेपनाह मुहब्बत की कहानी भी कह रहा हो...भले ही जब हम बड़े हो रहे थे...तब रेशमा ने हिन्दुस्तान में गाना शायद छोड़ दिया था....लेकिन उनके पूराने गीत ही हमारी हाथ थामे  हमें बड़ा करता  रहे और और इश्क,मुहब्बत, बेवफाई और रूसवाई के मायने समझाते रहे...रेशमा के ही गीतों ने जवानी की पहली दस्तक पर कदम रखते ही नयी हवा के झोकें से परिचय कराया....लेकिन जब यही बसंती हवा पतझड़ में सूखते पत्तों की वजह बनी...तो अपनी आवाज के जरिए इस दर्द को  सहारा दिया....और जब कभी छोटी ही सही लेकिन गुदगुदाती हवा याद आती है....तो बस अचानक ना जाने कहां से आज भी रेशमा की आवाज कानों के जरिए जेहन में उतरने लगती है...और चारो तरफ बजने लगता है....लंबी जुदाई...चार दिनों की

1 टिप्पणी:

  1. चंदन जी तीनों रचनायें अच्छी हैं । खासकर पहला -एक गरीब आदमी अपने भूख के बारे में ही सोचता है ।

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