रविवार, 30 मई 2010
हाबू दादा का चले जाना
हाबू दादा नहीं रहे...हालांकि उनका नाम जर्नादन प्रसाद दुबे था लेकिन प्यार से लोग उन्हें हाबू बाबू के नाम से ही जानते थे...उनका चले जाना केवल उनके परिवार के लिए एक निजी नुकसान नहीं बल्कि उससे भी ज्यादा उनकी कमी पूरे समाज को खलेगी खासकर नवादा को....दरअसल वो पूरी जिंदगी शहर को गांव और गांव को शहर लाते रहे....वो लोगों को भरोसा दिलाते रहे..साथ खड़े होने का हौंसला जताते रहे.....नवादा छोटा सा गांव जहां आजादी के इतने सालों बाद भी बिजली तक नहीं पहुंच पायी है..वैसे गांव को वो हमेशा सब कुछ ठीक हो जाने का भरोसा दिलाते रहे..हरेक गम और खुशी में साथ खड़े रहे ...उससे भी ज्यादा वो लोगों को जोड़ते रहे...पूरी ताकत के साथ,नाकामियों के बावजूद....भागलपूर से नवादा की दूरी करीब 40 किलोमीटर है लेकिन नवादा के लोगों के लिए ये दूरी हमेशा लंबी बनी रही है...चाहे वो सुविधा का मामला हो या फिर समाजिक एकता और समझ की....और ऐसे में हाबू दादा ताउम्र इस दूरी को पाटने में लगे रहे.....वो चाहते तो अपना ठौर छोड़कर शहर में बस चुके दूसरे लोगों की तरह अपनी बेहतरी और सुविधा के बारे में सोच सकते थे लेकिन उनके दिल और दिमाग में नवादा की चिंता हमेशा बनी रहे...विनम्र स्वभाव उनकी वैसी ही पहचान रही जैसे शरीर पर हमेशा कुर्ता और आंखों में चश्मा बना रहा.... उन्होंने अर्सा पहले गांव छोड़ दिया था...भागलपुर में सरकारी नौकरी और अपना मकान था...राजनैतिक जान-पहचान और रसूख भी कम नहीं...बावजूद इसके नवादा और नवादा के लोगों की परेशानी उनके दिलो-दिमाग बनी रहे...मेरे मन में कई दफे ये सावल उठे कि क्यों नहीं वो दूसरों की तरह सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं...लेकिन वो इन सवालों से इतर हमेशा चुपचाप नवादा को जोड़ने का काम करते रहे...पारिवारीक झगड़ा हो या फिर लोगों के दिलों की बढ़ती दूरी वो हमेशा लोगों को एक साथ इकट्ठा करने की कोशिश करते रहे...कुछ बात तो थी उनमें...यूं ही लड़ाई करने वाले दो लोग या दो परिवार उनके पास समझौते के लिए नहीं पहुंच जाते थे...दरअसल मुझे ऐसा लगता है कि संबंधों को लेकर उनकी ईमानदारी और साथ खड़े होने का भरोसा दिलाना ही..उन्हें सबके बीच स्वीकार्य बनाता रहा...उनका चले जाना उनके परिवार से ज्यादा नवादा के लिए नुकसानदेह है..क्योंकि उनके अपने बच्चे तो बड़े हो गये हैं लेकिन नवादा अब भी बच्चा है....अब नवादा के लोगों के दिलों की दूरियों को कोई भी कम करने की कोशिश नहीं करेगा...ये भी कह सकते हैं कि शायद ना तो किसी के पास इतना वक्त है और ना ही ताकत...वैसे वक्त की कमी उनके पास भी रही लेकिन उन्होंने नवादा के लिए वक्त की कमी कभी जाहिर नहीं होने दी....मैं कई सालों बाद उनसे पिछले साल मिला था....लेकिन सालों की दूरी के बाद भी वहीं स्नेह,वही प्यार और सफलता के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं पायी..ऐसे ही थे वो राजनैतिक और कानूनी पेचीदगियों के जानकार लेकिन सबसे दोस्ताना रवैया....चाहे कोई उनके पोते की उम्र का ही क्यों ना हो.....अब मैं जब भागलपुर जाउंगा तो उनके किस्से होगें..कहानियां होगी लेकिन वो ना होगें..ऐसे में बस यही उम्मीद करता हुं कि जिस समाज और नवादा को वो अपनी जिंदगी भर एक बनाये रखने का सपना देखते रहे वो समाज और नवादा ठीक उनकी याद की तरह एक जुट रहेगा..लेकिन मन में एक चोर भी है कि अगर आने वाले समय में नवादा कभी लड़खड़ाया तो उसे संभालने वाला कोई नहीं होगा...क्योंकि दूसरा हाबू दादा कोई और दिखता नहीं.....और शायद कोई होगा भी नहीं
मंगलवार, 25 मई 2010
गायब हो गयी हंसी
रुचिका गिरहोत्रा मामले में जब राठौर को 6 महीने की सजा सुनायी गयी थी तो राठौर अदालत से हंसते हुए बाहर निकला लेकिन अब राठौर की वो हंसी उसके चेहरे से गायब है ,पुलिस के घेरे में सिर झुकाये अदालत से जेल जा रहे राठौड़ के चेहरे पर कानून के डंडे का असर साफ दिख रहा था । उसके चेहरे से वो बेशर्म हंसी गायब थी, जो उसकी पहचान बन गई थी । पावर और पैसे का खेल बिगड़ा तो वो एक मामूली मुजरिम की तरह पुलिस की गिरफत में सिर झुकाये खड़ा था । लेकिन राठौड़ की वो पुरानी तस्वीर अब भी जेहन में है, जब राठौड़ को 6 महीने की सजा सुनायी गयी थी । उस समय उसके चेहरे पर कानून का भय नहीं बल्कि उससे खिलवाड़ करने वाली बेशर्मी थी, और यही बेशर्मी हंसी बन फूटी थी । राठौड़ की उस हंसी में पावर और पैसे का दंभ था...कानून से खिलवाड़ करने का गुरूर था ... और थी धूर्तता से भरी हुई चालाकी । राठौड़ की हंसी रसूखदार लोगों के अपराजित होने की ऐसी कहानी भी कह रहा थी जिसमें एक लड़की पर बुरी नजर डालने, छेड़छाड़ करने और आखिरकार उसे मरने के लिए मजबूर करने के बाद चेहरे पर पछतावा नहीं बल्कि विजेता के भाव थे ।लेकिन ये तब की कहानी थी....वक्त बदला...तारिख बदली कानून और अदालत का रूख बदला..तो चेहरे के भाव भी बदल गए....एक लड़की की अस्मत को खिलवाड़ बनाने वाल दंभी विजेता.... पराजित और हताश मुजरिम बन गया लेकिन ये सालों पहले होना चाहिए था । बेहतर ये होता कि सब कुछ रूचिका की आंखों के सामने होता, क्योंकि राठौड़ जैसे लोगों के चेहरे की ये बेशर्म हंसी आम आदमी को भरोसे को तोड़ती है और ऐसे ही शायद ऐसे ही टूटा होगा रूचिका का भरोसा और उसने आत्महत्या की होगी ।
मंगलवार, 11 मई 2010
मैं अपने शहर को मिस करने लगा हूं।
पता नहीं क्यों अचानक मैं अपने शहर को मिस करने लगा हूं। दिल्ली अचानक गर्म हवा सी लगने लगी है । शकरपुर से ओखला तक की दूरी एसी बसों से तय करने के बाद भी ना जाने क्यों खुली हवा में सांस लेने की छटपटाहट बढ़ने सी लगी है । दिल्ली आने का वो वक्त मुझे अब भी याद है...उन दिनों को याद करूं तो दिल्ली लुभा रही थी..मन में एक अजीब तरह का आर्कषण पैदा हो रहा था,इस शहर के प्रति । जब विक्रमशिला एक्सप्रेस नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच रही थी तो मेरे मन के अंदर की हसरत को मानो एक पंख सा मिल रहा था । ये आकर्षण लंबे समय तक बना भी रहा लेकिन धीरे-धीरे वास्तवीकता का कार्बन गैस सपनों के ऑक्सीजन पर हावी होने लगा । फिर ना जाने कब वो आर्कषण डर में तब्दील में हो गयी । हालांकि जानता हूं कि मेरे सफर के दरिया से अभी बहुत पानी बहना बाकी है लेकिन अब तक जितना बहा उसने तटबंधों को तोड़ने का ही काम किया है या यूं कहें कि किनारों के बह जाने का डर पैदा कर दिया है । हालांकि इस दिल्ली ने दिया बहुत कुछ लेकिन लेकिन मन में नैराश्य का भाव भी पैदा किया । इस नैराश्य की बड़ी वजह रही आस-पास ऐसे लोगों की जमात जिनसे कुछ खास सीखने को नहीं मिला ।दिल्ली में रहते हुए मेरे मन के कई मिथक भी टूटे । मैने संबंधों के अहमियत को डस्टबीन में पड़ा देखा । मेरे छोटे शहर की बिजली किल्लत के मुकाबले यहां 24 घंटों रोशनी रहती है लेकिन ना जाने क्यों ये रोशनी जीवन के अंदर देखने के लिए नाकाफी हो जाती है । चारो तरफ भीड़ है लेकिन अकेलेपन का अहसास उससे कहीं ज्यादा । फोन की डायरियां नामों ओर नम्बरों से भरी पड़ी है लेकिन बहुत कम नाम और नंबर भरोसा दिला पाते हैं । ऐसे में महल्ले के चाचा,भैया खूब याद आते हैं ।
रविवार, 13 दिसंबर 2009
बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर...हमारा बजाज.
बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर...हमारा बजाज....हमारा बजाज...ये महज विज्ञापन नहीं बल्कि नये सपनों,नयी उड़ान की... नयी गाथा थी......थी इसलिए क्योंकि अब हमारा बजाज यानि हमारा स्कूटर हमारा नहीं रह गया है...इसके मालिकों को कार और बड़ी-बड़ी गाड़ियों के जमाने में ये छोटी सी चीज मुनाफे के लिहाज घाटे का सौदा लगने लगी थी...या यूं कहें कि आजके फास्ट ट्रैक युवाओं के लिए ये स्कूटर जिंदगी की तेज रप्तार में ब्रेकर की तरह महसूस होने लगा...जिसका असर इस नन्हीं जान की बिक्री पर पड़ा और अब इसके मालिक इसे बाजार से उठाने का फैसला कर चुके हैं....ना जाने कितने स्कूटर बाजार में आई और गई..लेकिन बजाज,स्कूटर से कहीं ज्यादा था...राम बाबू को शादी में मिला था ये स्कूटर...शादी के बाद अपनी पत्नी को इसी स्कूटर पर बिठाकर पहली बार ससुराल गये थे वो...उन्हें अब भी याद है...किस तरह से शहर पार करते ही एक सड़क के किनारे उन्होंने स्कूटर रोक दी थी...ताकि अपनी संगिनी का चेहरा एक बार दिन के उजाले में देख लिया जाए...अब पत्नी नहीं रही..बेड पर पड़े अंतिम यात्रा की बाट जोह रहे हैं...लेकिन बूढ़े राम बाबू को बरामदे में खड़ी ये स्कूटर उन्हें दिन में कई बार शहर के बाहर उसी जगह ले जाती है...कहानी राम बाबू की अकेले नहीं है...दरअसल इस स्कूटर ने एक नयी पीढ़ी को अपने साथ जवान किया....हर सुख-दुख का साथी रहा है ये स्कूटर....इसने जवानी की मस्तियां झेली...दोस्तों की दूसरी गाड़ियों के साथ रेस लगाया....गांव के चक्कर लगाये...पत्नियों को साथ घुमाया...बेटी की शादी हुई तो सबसे ज्यादा इसी स्कूटर ने भागम-भाग की...बिना किसी हील-हुज्जत के..सारे काम किये...रिश्ते फाइनल करने से लेकर..बैंड-बाजे को ठीक करना...रसोइये के टूटी-फूटी गलियों से लेकर...पूरे शहर को नाच-नाच कर कार्ड बांटा..जब बेटी बिदा हुई तो बिना किसी को आंसू दिखाये..चुप-चाप रोता रहा...बिल्कुल पिता की तरह...घर में खुशियां हो या गम...सबका साथई बना...लेकिन लोग बदल गए...स्कूटर पर चलते-चलते बच्चे बड़े होने लगे...गांव और छोटे शहरों से निकलकर महानगरों में आ गए..अब धूल भरी सड़कों की जगह चमचमाती फ्लाईओवरों ने ले ली थी...मां की लोरी के बदले..डिस्कोथेक के गीत मन में उतरने लगे...चांदनी रात की बजाये अब आसामान में नियोन लाइट चमकने लगे...नयी उम्मीदें...नयी हसरत..नये उड़ान को पंख मिलने लगे...अब इसके नये साथियों को रप्तार की कमी महसूस होने लगी थी...ऐसे में वही बच्चे जो मैट्रिक पास करने के बाद इस बजाज पर बैठकर घर से तीन-चार किलोंमीटर दूर सिगरेट पीने जाया करते थे...अब उन्हें को इसकी जरूरत नहीं रह गयी...इसके पीछे कुछ तो वाजिब वजहे हैं..अब कारण चाहे जो हो लेकिन अब बजाज सड़कों पर नहीं दिखेगा.....लेकिन सड़कों पर ना सही लेकिन इसकी तस्वीर यादों के जरिए दिलों में बनी रहेगी...
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009
"इश्वर तेरे होने पर शक है मुझे"
दफ्तर जाते समय
चौराहे पर एक बूढ़ा हर रोज
तेज भागती सड़कों के किनारे
दिखता है मुझे
चिल्ला कर मांगता है चंद पैसे
जीवन जीने के लिये
‘इश्वर’ तेरे नाम पर
पर दुनिया है कि ठहरती ही नहीं
और तभी मुझे शक होता है,इश्वर
तेरी मौजूदगी पर
पर लोग कहते हैं कि
तू है और
तुझे सब मालूम है
फिर तूने बम फटने से पहले
बताया क्यों नहीं
यदि ये दुनिया तेरी अपनी है,तो
मासूमों के खून से लाल क्यों होने दिया इसे
जब पश्चिम के टैंक,इराक को रौंद रहे थे
तो तूने उस टैंक के पहिये को रोका क्यों नहीं
सुना है तेरे लिये,सब एक है,तो
विदर्भ के किसानों ने खुदकुशी क्यों की
क्यों नहीं उनके फसल को बर्बाद होने से बचाया
अगर सब कुछ तेरे इशारे पर है,तो
बेकारी,गरीबी खत्म क्यों नहीं करता तू
क्यों आम आदमी रोता है उम्र भर
और भ्रष्ट नेताओं को दंड नहीं मिलता
यदि तू इतना बलशाली है,तो
धर्म,जाति को जंजीरों को तोड़ता क्यों नहीं
यदि राम,कृष्ण,गांधी तेरे ही रूप थे
तो आज तू कहां है
क्या किसी आतंकी ने,तूझे भी खत्म कर दिया
या बाजार में टहलते में हुए
तू भी किसी बम के छर्रे का शिकार हो गया
या फिर तू है ही नहीं
सदियों से लोग,यूं ही बेवकूफ बनते आ रहे हैं
छलावे में जीते हुए
अनाम सहारे की उम्मीद लगाए बैठे हैं
तभी तो परीक्षा की घड़ी अब तेरे लिये है
अब तो दिखा अपना करतब
बचा इस मानवता को
मरने ना दे इंसानियत को
वरना कुछ वर्षों बाद
जब हैवान ही बच जायेगें इस धरती पर
तो तेरे होने का भरोसा ही नही होगा
और फिर तू
गलियों में,सड़कों पर
चिल्लाता फिरेगा,
कि
मैं इश्वर हुं,और मैं मौजूद हुं यहां
बिल्कुल उस बूढ़े की तरह
चौराहे पर एक बूढ़ा हर रोज
तेज भागती सड़कों के किनारे
दिखता है मुझे
चिल्ला कर मांगता है चंद पैसे
जीवन जीने के लिये
‘इश्वर’ तेरे नाम पर
पर दुनिया है कि ठहरती ही नहीं
और तभी मुझे शक होता है,इश्वर
तेरी मौजूदगी पर
पर लोग कहते हैं कि
तू है और
तुझे सब मालूम है
फिर तूने बम फटने से पहले
बताया क्यों नहीं
यदि ये दुनिया तेरी अपनी है,तो
मासूमों के खून से लाल क्यों होने दिया इसे
जब पश्चिम के टैंक,इराक को रौंद रहे थे
तो तूने उस टैंक के पहिये को रोका क्यों नहीं
सुना है तेरे लिये,सब एक है,तो
विदर्भ के किसानों ने खुदकुशी क्यों की
क्यों नहीं उनके फसल को बर्बाद होने से बचाया
अगर सब कुछ तेरे इशारे पर है,तो
बेकारी,गरीबी खत्म क्यों नहीं करता तू
क्यों आम आदमी रोता है उम्र भर
और भ्रष्ट नेताओं को दंड नहीं मिलता
यदि तू इतना बलशाली है,तो
धर्म,जाति को जंजीरों को तोड़ता क्यों नहीं
यदि राम,कृष्ण,गांधी तेरे ही रूप थे
तो आज तू कहां है
क्या किसी आतंकी ने,तूझे भी खत्म कर दिया
या बाजार में टहलते में हुए
तू भी किसी बम के छर्रे का शिकार हो गया
या फिर तू है ही नहीं
सदियों से लोग,यूं ही बेवकूफ बनते आ रहे हैं
छलावे में जीते हुए
अनाम सहारे की उम्मीद लगाए बैठे हैं
तभी तो परीक्षा की घड़ी अब तेरे लिये है
अब तो दिखा अपना करतब
बचा इस मानवता को
मरने ना दे इंसानियत को
वरना कुछ वर्षों बाद
जब हैवान ही बच जायेगें इस धरती पर
तो तेरे होने का भरोसा ही नही होगा
और फिर तू
गलियों में,सड़कों पर
चिल्लाता फिरेगा,
कि
मैं इश्वर हुं,और मैं मौजूद हुं यहां
बिल्कुल उस बूढ़े की तरह
मंदिर और मदिरालय
मंदिर और मदिरालय में है कौन बेहतर
ये सवाल एक छोटे बच्चे से पूछा ।
उससे,जो एक शराबखाने के बाहर,
बेचता है बर्फ हर शाम ।
कमर से बांधे रखता है प्लास्टिक का ग्लास
हाथों में एक मग और माचिस ।
पांच रूपये में रच देता है,जो
बार,खुले आसमां के नीचे ।
इसके बदले उसे मिलता है
चंद पैसे और शराब की खाली बोतलें
मुनाफे का सौदा है ये ।
ये जगह मुफिद है उसके लिये
धूल भरी गर्म शामों में भी ।
पर उसे बहुत मतलब नहीं
पास एक मंदिर से ।
उसे बस इतना मालूम है
कि,भगवान रहते हैं यहां ।
हजारों लोग आते हैं,
कुछ ना कुछ मांगने,
नई गाड़ी की पूजा कराने,
तो अच्छी नौकरी मांगने,
लेकिन इससे उसे क्या
रोटी तो नहीं मिल पाती यहां ।
प्रसाद भी लोग बड़ी दुकानों से खरीद लाते हैं
फूल बेचने के लायक पूंजी नहीं उसके पास ।
मंदिर से मिले प्रसाद के बाद भी,
भूख लगी रहती है उसे ।
लिहाजा मदिरालय ही,
बेहतर है उसके लिये ।
यहां वो शान से रहता है
क्योंकि उसे किसी से कुछ मांगना नहीं पड़ता ।
ये सवाल एक छोटे बच्चे से पूछा ।
उससे,जो एक शराबखाने के बाहर,
बेचता है बर्फ हर शाम ।
कमर से बांधे रखता है प्लास्टिक का ग्लास
हाथों में एक मग और माचिस ।
पांच रूपये में रच देता है,जो
बार,खुले आसमां के नीचे ।
इसके बदले उसे मिलता है
चंद पैसे और शराब की खाली बोतलें
मुनाफे का सौदा है ये ।
ये जगह मुफिद है उसके लिये
धूल भरी गर्म शामों में भी ।
पर उसे बहुत मतलब नहीं
पास एक मंदिर से ।
उसे बस इतना मालूम है
कि,भगवान रहते हैं यहां ।
हजारों लोग आते हैं,
कुछ ना कुछ मांगने,
नई गाड़ी की पूजा कराने,
तो अच्छी नौकरी मांगने,
लेकिन इससे उसे क्या
रोटी तो नहीं मिल पाती यहां ।
प्रसाद भी लोग बड़ी दुकानों से खरीद लाते हैं
फूल बेचने के लायक पूंजी नहीं उसके पास ।
मंदिर से मिले प्रसाद के बाद भी,
भूख लगी रहती है उसे ।
लिहाजा मदिरालय ही,
बेहतर है उसके लिये ।
यहां वो शान से रहता है
क्योंकि उसे किसी से कुछ मांगना नहीं पड़ता ।
'एक आमंत्रण सा दिखता है '
एक आमंत्रण सा दिखता है तुममें,
एक मूक सहमति भी ।
पर ना जाने क्यों,
चेहरा भावहीन ।
आंखे,चेहरा,होंठ,चाल,हंसी,
सब तो जुड़े होतें है ।
पर तुममें ये
परस्पर विरोधी क्यों ।
नहीं,मैं जानता हुं,
इसके पीछे जान-बूझ कर
बुना हुआ कोई जाल नहीं ।
लेकिन अनजाने ही सही
भटकाव का कलंक
तुम्हारे खाते आएगा ।
और ये कोई गौरव,
तो नहीं, कि तुम इस पर,
इतराना चाहोगी ।
शायद कोई डर है
तुम्हारे मन में
लेकिन,रंगे चेहरे से बचने का
ये उचित समाधान तो नहीं ।
ये अबूझ पहेली,
परायों को उलझाने को तो ठीक
लेकिन इससे
अपनों को बंदिश क्यों ,
शायद लगता है,
नियोन बल्ब पसंद हैं तुम्हें ,
पर दिन के उजालों में भी,
यथार्थ से परहेज
ये ठीक तो नहीं.....
एक मूक सहमति भी ।
पर ना जाने क्यों,
चेहरा भावहीन ।
आंखे,चेहरा,होंठ,चाल,हंसी,
सब तो जुड़े होतें है ।
पर तुममें ये
परस्पर विरोधी क्यों ।
नहीं,मैं जानता हुं,
इसके पीछे जान-बूझ कर
बुना हुआ कोई जाल नहीं ।
लेकिन अनजाने ही सही
भटकाव का कलंक
तुम्हारे खाते आएगा ।
और ये कोई गौरव,
तो नहीं, कि तुम इस पर,
इतराना चाहोगी ।
शायद कोई डर है
तुम्हारे मन में
लेकिन,रंगे चेहरे से बचने का
ये उचित समाधान तो नहीं ।
ये अबूझ पहेली,
परायों को उलझाने को तो ठीक
लेकिन इससे
अपनों को बंदिश क्यों ,
शायद लगता है,
नियोन बल्ब पसंद हैं तुम्हें ,
पर दिन के उजालों में भी,
यथार्थ से परहेज
ये ठीक तो नहीं.....
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