मंगलवार, 11 मई 2010

मैं अपने शहर को मिस करने लगा हूं।

पता नहीं क्यों अचानक मैं अपने शहर को मिस करने लगा हूं। दिल्ली अचानक गर्म हवा सी लगने लगी है । शकरपुर से ओखला तक की दूरी एसी बसों से तय करने के बाद भी ना जाने क्यों खुली हवा में सांस लेने की छटपटाहट बढ़ने सी लगी है । दिल्ली आने का वो वक्त मुझे अब भी याद है...उन दिनों को याद करूं तो दिल्ली लुभा रही थी..मन में एक अजीब तरह का आर्कषण पैदा हो रहा था,इस शहर के प्रति । जब विक्रमशिला एक्सप्रेस नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच रही थी तो मेरे मन के अंदर की हसरत को मानो एक पंख सा मिल रहा था । ये आकर्षण लंबे समय तक बना भी रहा लेकिन धीरे-धीरे वास्तवीकता का कार्बन गैस सपनों के ऑक्सीजन पर हावी होने लगा । फिर ना जाने कब वो आर्कषण डर में तब्दील में हो गयी । हालांकि जानता हूं कि मेरे सफर के दरिया से अभी बहुत पानी बहना बाकी है लेकिन अब तक जितना बहा उसने तटबंधों को तोड़ने का ही काम किया है या यूं कहें कि किनारों के बह जाने का डर पैदा कर दिया है । हालांकि इस दिल्ली ने दिया बहुत कुछ लेकिन लेकिन मन में नैराश्य का भाव भी पैदा किया । इस नैराश्य की बड़ी वजह रही आस-पास ऐसे लोगों की जमात जिनसे कुछ खास सीखने को नहीं मिला ।दिल्ली में रहते हुए मेरे मन के कई मिथक भी टूटे । मैने संबंधों के अहमियत को डस्टबीन में पड़ा देखा । मेरे छोटे शहर की बिजली किल्लत के मुकाबले यहां 24 घंटों रोशनी रहती है लेकिन ना जाने क्यों ये रोशनी जीवन के अंदर देखने के लिए नाकाफी हो जाती है । चारो तरफ भीड़ है लेकिन अकेलेपन का अहसास उससे कहीं ज्यादा । फोन की डायरियां नामों ओर नम्बरों से भरी पड़ी है लेकिन बहुत कम नाम और नंबर भरोसा दिला पाते हैं । ऐसे में महल्ले के चाचा,भैया खूब याद आते हैं ।